Sadguru Kabir

Sadguru Kabir
हम काहें को मंदिर में जायेंगे 
हम घर ही में तीरथ मनाएंगे !!धृ!!
सासु मेरी गौरी, ससुर महादेवा ,
स्वामी को इश्वर मनाएंगे 
हम काहें को ............. !!१!!
माटी को देवा डोले न बोले,
काहें को स्नेह लगायेंगे 
हम काहे को ...........!!२!!
तीरथ में पंडा जग भरमावे,
उनहू से पैसे बचायेंगे 
हम काहे को ...........!!३!!
संत गुरु की सेवा करिके,
मुक्ति का मारग बनायेंगे 
हम काहे को ...........!!४!!


रहना नहीं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडि़या, बूँद पड़े घुल जाना है।
यह संसार कॉंट की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ और झॉंखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है।


पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार
ताते तो चाकी भली पीस खाय संसा

वस्तुतः कबीर यथार्थ में जीवन जीने के पक्षधर थे। छल-कपट और पाखंड से जकड़ा समाज मनमुख और धोखेबाज हो जाता है इसीलिए उन्होंने सत गुरु की शरण में जाकर विषय वासनाओं की मुक्ति के साथ उस परमात्मा के सुमिरण की बात कही साध संगत में कबीर कह उठते हैं- 'साधो आई ज्ञान की आँधी भ्रम की टांटी सबै उड़ानी, माया रहे न बाँधी' जब तक अज्ञनता के कारण जीवन भ्रम जाल में जकड़ा रहता है। तभी तक जातिगत ऊँच-नीच समाज को खोखला किए रखता है। 


रहना नहिं देस बिराना है।

यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥

यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।

कहत 'कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥


झीनी-झीनी बीनी चदरिया,
काहे कै ताना, काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।
साँई को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक कै बीनी चदरिया॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया।
दास 'कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया॥
मन लागो मेरो यार फकीरी में।
जो सुख पावौं राम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में।
भली बुरी सबकी सुनि लीजै, कर गुजरान गरीबी में॥
प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि-बनि आई सबूरी में।
हाथ में कूंडी बगल में सोंटा, चारों दिस जागीरी में॥
आखिर यह तन खाक मिलैगो, कहा फिरत मगरूरी में।
कहत 'कबीर सुनो भई साधो, साहिब मिलै सबूरी में॥




कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सब की खैर
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर!
साँईं इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाये
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू ना भूखा जाये।
बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलया कोई
जो मन खोजा आपना, मुझ से बुरा ना कोई।
माया मरी ना मन मरा, मर मर गये शरीर
आशा त्रिश्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोये
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होये।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोए।
धीरे धीरे रे मना, धीरज से सब होये
माली सिंचे सौ घड़ा, ऋतु आये फ़ल होये।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोये
औरों को शीतल करे, आपहुँ शीतल होये।
जाती ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तलवार की पड़ी रेहन जो म्यान।
माटी कहे कुम्हार से, काहे रोंदे मोहे
ईक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूगीं तोहे।
साधु ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुहाय
सार सार को गही रहे, थोथा देय उडाय।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नही, फल लगे अति दूर।